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आमिर खान---वो नाम है जो समर्पण, पूर्णता और गौरवपूर्ण सिनेमा का पर्याय बन गया है… उनकी फिल्में टिकट खिड़कियों पर नए मानक निर्धारित करती है : गजनी, ऐसी पहली फ़िल्म थी जिसने 100 करोड़ रुपए कमाए थे…3 इडियट्स, जिसने सनीसनी मचाते हुए 200 करोड़ का आंकड़ा पार किया था [यह जादुई आंकड़ा पार करने वाली पहली हिंदी फिल्म थी]...पीके, घरेलू बाजार [हिंदी फिल्मों] में अब तक की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म है जिसने 300 करोड़ का आंकड़ा पार किया…

जाहिर है, दंगल अपने कंधों पर भारी उम्मीदों को वहन करती है । साल 2016 की अंतिम बड़ी फ़िल्म से इंडस्ट्री की नैया पार लगाने की उम्मीद की जा रही है, क्योकि 2016 हिंदी सिनेमा के लिए बहुत अच्छा साबित नहीं रहा है । कारोबार, अब तक के सबसे निचले स्तर पर है, और ज्यादातर फ़िल्में तो टाइटैनिक से भी ज्यादा तेज डूब रही हैं ।

इससे पहले की मैं आगे बढ़ुं एक मुनासिब संदेह मैं स्पष्ट कर देता हूं…दंगल सुल्तान से बिल्कुल मेल *नहीं* खाती है । एक ही खेल-पहलवानी से ओतप्रोत दोनों फ़िल्मों के बीच जमीन-आसमान का अंतर है । सुल्तान एक काल्पनिक कहानी थी जिसमें प्रेम कहानी पर ध्यान केंद्रित किया गया था, जबकि दंगल एक असल जिंदगी की कहानी महावीर सिंह फ़ोगट, जिसने अपनी बेटियों गीता फ़ोगट और बबीता फ़ोगट को पहलवानी में प्रशिक्षित किया था और उन्हें विश्व स्तर का पहलवान बनाया था, पर आधारित है ।

साल 2016 असल जिंदगी के किरदारों/घटनाओं पर आधारित कहानियों का गवाह बना । इस कड़ी में वास्तविकता में डूबी फ़िल्में, आम बोलचाल की भाषा, वास्तविकता से बिना

छेड़छाड़ के यथार्थवादी रास्ता अपनाते हुए फ़िल्में परोसी गई । दंगल एक ऐसी सच्ची कहानी है जिसे कुशल कथाकार नीतिश तिवारी ने अपने लेखकों की टीम के साथ मिलकर [स्टोरी आइडिया: दिव्या राव; लेखकों में: नीतेश तिवारी, पीयूष गुप्ता, श्रेयस जैन, निखिल मेहरोत्रा] बनाया और ये सुनिश्चित किया कि यह फ़िल्म,हर वर्ग के साथ एक रिश्ता कायम करे ।

दंगल बेहतरीन काम का एक नमूना है -- यह मनोरम है, अप्रत्याशित है, मंत्रमुग्ध कर देने वाली है, मनोरंजक है और अपने पूरे समय में [रन टाइम: 2.41 घंटे] बिल्कुल भी बोर नहीं करती है । सबसे महत्वपूर्ण बात, भारतीय लोकाचार में दंगल एकदम फ़िट बैठती है । इसके उतार-चढ़ाव, हार और जीत, हँसी और शोक…पर आप मुस्कुराते हैं, हंसते हैं, रोते हैं, खुश होते हैं और ये आपको अति आनंदित करती है…। दंगल यह सब काम बहुत ही कुशलतापूर्वक करती है और अंत में आपको खुश करती है ।

फ़िल्म की कहानी : महावीर सिंह फ़ोगट [आमिर खान] एक पहलवान है जिसका एकमात्र लक्ष्य पहलवानी के खेल में भारत के लिए सोना जीतकर लाना है और क्योंकि वो यह सब खुद करने में अक्षम है इसलिए वह अपने बेटों को चैंपियन बनाने के लिए प्रशिक्षण देने का फ़ैसला करता है । हालांकि, महावीर सिंह के बेटियां हैं इसलिए उसे लगता है कि भारत के लिए गोल्ड जीतने का सपना ध्वस्त है ।

एक दिन, महावीर को पता चलता है कि उसकी बेटी का उसके पड़ौस के लड़के के साथ झगड़ा हो जाता है और उसकी बेटियों ने उस लड़के की पीट-पीट कर चमड़ी उधेड़ दी । और तभी महावीर सिंह को महसूस होता है कि भारत के लिए गोल्ड जीतकर लाने का उसका सपना अब उसकी बेटी के द्दारा पूरा किया जा सकता है । अब महावीर अपनी बेटियों को विश्व स्तर का पहलवान बनाने के लिए प्रशिक्षित करने का फ़ैसला करता है ।

महावीर सिंह की बेटियां शुरूआत में संकोच करती हैं और उन्हें इस दौरान कठिन प्रशिक्षण सेशन से गुजरना होता है, लेकिन जल्द ही वह इस खेल में कुशल हो जाती हैं । क्या गीता और बबीता अपने पिता के सपने को पूरा कर पाती हैं ?

चिल्लर पार्टी और भूतनाथ रिटर्न्स जैसी फ़िल्में निर्देशित करने के बाद दंगल के साथ नीतिश तिवारी अब तक का सबसे कुशल काम करते हैं । अधिकांश फ़िल्में मुद्दे पर आने के लिए काफ़ी समय लेती है लेकिन दंगल का बीच का और अंत का कार्य ध्यान खींचता है और मोहक है हर रूप में ।

फ़िल्म की कहानी को बहुत ही प्रभावशाली तरीके के साथ बयां करने के लिए तिवारी प्रशंसा के काबिल है और फ़िल्म का संदेश बिना किसी उपदेशात्माकता के साफ़-साफ़ बहुत तेजी से लोगों तक पहुंचता है । कहानी को बयां करने का अंदाज बहुत साधारण, मजबूत है और जो आपका ध्यान आकर्षित करता है ।

आमिर खान की फ़िल्म में इमोशंस हमेशा से ही मुख्य आधार होते हैं और दंगल कोई अपवाद नहीं है । वे वास्तविक और सम्बद्ध हैं । दंगल में एक मजबूत भावनात्मक जुड़ाव है, इसमें बहुत ही वास्तविक अंदाज में एक पिता के अपनी बेटियों के साथ नाजुक संबंधों को दर्शाया है । फ़िल्म में ड्रामा एकदम सटीक है और इमोशनल पल, दिल को छू लेने वाले और मर्मभेदी हैं । अंत से ठीक पहले के पल फ़िल्म को उच्च स्तर पर ले जाते हैं और एक फ़िल्म में जान डालते हैं जिसकी ये हकदार है ।

फ़िल्म में प्रीतम का संगीत फ़िल्म में चार चांद लगा देता है । 'हानिकारक बापू', 'धाकड़', 'गिलहरियां' और फ़िल्म का शीर्षक गीत पहले से ही पसंद किए जा चुके है और सबसे अच्छी बात ये सभी गाने बहुत ही अच्छे ढंग से फ़िल्म में समा जाते हैं । फ़िल्म का बैकग्राउंड स्कोर क्रियाशील है और कहानी के प्रभाव को और बढ़ाता है । डीओपी [सेतु] जबरदस्त प्रशंसा के हकदार हैं । वे निर्देशक के नजरिए को फ़्रेम में बैठाने में पूरा न्याय

करता है । संवाद बहुत अच्छे ढंग से फ़िल्म को सशक्त बनाते हैं और कई जगहों पर ताली-योग्य हैं ।

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फ़िल्म में कुश्ती के दृश्यों को शानदार तरीके से क्रियान्वित किया गया है । फ़िर वो चाहे ट्रेनिंग सेशन वाले सीन हो या धोबी-पछाड़ सीन या अखाड़े में विरोधियों का मटियामेट करने वाले और रिंग वाले सीन सभी कमाल के हैं और उन्हें स्क्रीन पर देखना बहुत खुशी प्रदान करता है । थिएटर में इन दृश्यों पर निश्चितरूप से तालियां और सीटी बजेंगी । फ़िल्म का संपादन [बल्लू सलूजा] तेज धार वाला और सशक्त व सुस्पष्ट हैं । फ़िल्म में बेचैनी या बोरियत के लिए कोई जगह नहीं है ।

इसमें कोई शक नहीं है कि दंगल पूरी तरह से आमिर खान की फ़िल्म है । बहुत ही दक्ष अभिनेता पीके के बाद शानदार परफ़ोरमेंस के साथ काफ़ी लंबे समय बाद लौटे हैं । वह एक अभिनेता के रूप में बहुत जंचते हैं और फ़िल्म में पूरी जान डाल देते हैं । उनके हाव-भाव, बॉडी लैंगग्विज और उनका चर्चित फ़िट और बढ़िया जवान पहलवान से तोंदू, मध्यम आयु वर्ग के पिता का शारिरीक बदलाव सराहनीय है । इसके अलावा फ़िल्म में वो परफ़ोरमेंस जिस पर प्रकाश डालने की जरूरत है वो है साक्षी तंवर । उन्होंने आमिर के किरदार के साथ अद्भुत रूप से कंधे से कंधा मिलाया है और विविध भावनाओं को बहुत ही सहजता से दर्शाया है ।

दोनो, फ़ातिमा सना शेख और सान्या मल्होत्रा ने अपने-अपने किरदारों में ताजगी भरी है । फातिमा आमिर की बेटी, जो उसके पिता और राष्ट्र को उसकी उपलब्धियों पर गर्व कराती है, के रूप में बहुत शानदार लगती है । वह शीर्ष फार्म में है । सान्या के लिए भी बिलकुल इसी तरह से है, जिसने दंगल के साथ अपना डेब्यू किया है । जिस सहजता के साथ उन्होंने अपना किरदार निभाया है वह वाकई काबिले तारिफ़ है । वास्तव में, अपने ऑन स्क्रीना माता-पिता [आमिर और साक्षी] के साथ फ़ातिमा और सान्या की

रिलेशनशिप ईमानदार है और पहचान योग्य है ।

वो कलाकार जिन्होंने बाल किरदार निभाए-जरिना वसीम और सुहानी भटनागर विशिष्ट हैं । स्पष्टरूप से, हर एक अपने किरदार में इस तरह डूबा हुआ है कि उसके लिए पूरी फ़िल्म के दौरान किरदार को जीना और किरदार को पहले से ज्यादा मजबूत बनाना सरल होता गया है ।

अपरशक्ति खुराना भी फ़िल्म में देखने योग्य हैं । आमिर के भतीजे के रूप में अपरशक्ति खुराना न केवल जीवंत और अद्भुत क्षणों का योगदान देते हैं बल्कि वह इस फ़िल्म में अपनी सबसे अच्छी परफ़ोरमेंस देते हैं । ऋत्विक साहोरे [अपरशक्ति का छोटा रूप] भी उतना ही कुशल है । गिरीश कुलकर्णी [कोच], फिर से, एक बेहद सक्षम अभिनेता है जो अपने किरदार में जंचते हैं । विवान भतेना, एक कैमियो में, एकदम परफ़ेक्ट है ।

कुल मिलाकर, दंगल एक बेहतरीन फ़िल्म है । एक बेहतरीन फ़िल्म जो थिएटर से बाहर आने के बाद भी आपके दिल और दिमाग में जगह बनाने का दम रखती है । ये एक ऐसी शानदार फ़िल्म है जो हिंदी सिनेमा में आपके विश्वास को पुनर्स्थापित करती है । दरअसल ये कहना गलत नहीं होगा कि आने वाले समय में दंगल हिंदी फ़िल्म जगत की एक सबसे बेहतरीन फ़िल्म के तौर पर पहचानी जाएगी, और मेरी मानिए तो, आगे चलके ये फ़िल्म एक 'क्लासिक' के तौर पर याद रखी जाएगी । इसमें ड्रामा, भावनाएं, खेल भावना, असाधारण देशभक्ति का बेजोड़ मेल है और इन सब पर सोने पर सुहागा है आमिर खान की अत्यंत उत्कृष्ट परफ़ोरमेंस । इस फ़िल्म को जिस चीज से सबसे बड़ा फ़ायदा होने वाला है वो है लंबी छुट्टियों [क्रिसमस और नव वर्ष] का आना जो कि बॉक्सऑफ़िस की टिकट विंडो पर एक नया रिकॉर्ड बनाएगी । जरूर देखनी चाहिए !