यह फ़िल्म सिनेप्रेमियों के दिमाग में श्याम बेनेगल की फ़िल्म मंडी की याद ताजा करती है । कई हिंदी फिल्मों में अदालतों और वेश्याओं के ग्लैमरस चित्रण के विपरीत, श्याम बेनेगल - उनकी फिल्मों में यथार्थवाद के चित्रण के लिए जाने जाते थे,- उन्होंने सेक्स वर्कर के माहौल और जीवन शैली पर बहुत ही प्रामाणिक रूप से कब्जा कर लिया ।

श्रीजीत मुखर्जी की बेगम जान इसी तरह की एक फ़िल्म है । भले ही यह फ़िल्म मंडी की याद दिलाती है, लेकिन बेगम जान, बेनेगल की फ़िल्म से प्रेरित नहीं है, न ही वर्तमान समय में उस फ़िल्म का अनुकूलन है । यह फ़िल्म बंगाली फ़िल्म राजकहिनी [2015] का हिंदी रीमेक है, जिसे श्रीजीत द्वारा निर्देशित किया गया, यह फ़िल्म विभाजन के दौर की कहानी है, मंडी से कहीं अधिक अपरिपक्व, क्रूर और हिंसक । बैगम जान का ट्रेलर अपने इरादे में स्पष्ट था: यह डरपोक/ कच्चे दिल वालों के लिए नहीं है ... वास्तव में, इस फ़िल्म को हजम करने के लिए आपको मजबूत दिल की जरूरत है ।

इससे पहले की हम आगे बढ़ें, आईए हम पहले आपको इसके प्लॉट के बारें में संक्षिप्त रूप से बता देते हैं…

सिरिल रैडक्लिफ को सीमा रेखा खींचने का कार्य सौंपा गया, जो पंजाब को दो हिस्सों में विभाजित करेगा: भारत के लिए एक हिस्सा और दूसरा पाकिस्तान के लिए, राजनेता [आशिष विद्यार्थी और रजत कपूर], जो अपनी संबंधित सरकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं, और अपनी नौकरी को ईमानदारी से करने के लिए जाने जाते हैं, लेकिन उनके काम में आड़े आ जाता है एक वैश्यालय, जिसे तेजतर्रार बेगम जान [विद्या बालन] द्वारा चलाया जाता है, और वह उसी सीमा पर स्थित है जिसे विभाजित करना है ।

आधिकारिक नोटिस जारी होने के बावजूद, बेगम जान उस वैश्यालय परिसर खाली करने से इंकार कर देती है । वह इस बात के भी खिलाफ़ है कि उनका ये वैश्यालय कहीं ओर शिफ़्ट किया जाए और इस बात को लेकर वो उग्र और विद्रोही हो जाती है । मेरा शरीर, मेरा घर, मेरे नियम ही जीवन में उसके आदर्श वाक्य है । और इसके बाद विभाजन के दौरान बदलते राजनीतिक परिदृश्य के बीच बेगम जान और निवासियों के अधिकारियों के साथ संघर्ष शुरू होता है ।

श्रीजीत ने आपको शुरूआत में ही चौंका दिया : वर्तमान समय में हैरान कर देने वाली घटना आपको असहज बनाती है । यद्यपि यह फिल्म की एक टोन सेट करती है, जैसे-जैसे फ़िल्म आगे बढती है, संदेह आपके दिमाग में घर करने लगता है : यह कहानी कितनी सुसंगत और महत्वपूर्ण है, जिस कहानी के बारे में श्रीजीत बखान करना चाहते हैं ? मेरा मतलब है, क्या हम 1940 के दशक की अवधि की फिल्म देखने के लिए तैयार नहीं थे ? क्या वो सीक्वेंस केवल झटका देने के लिए शामिल किया गया था ? श्रीजीत स्पष्ट रूप से जानते हैं कि वह क्या कह रहे है और केवल फिल्म के अंतिम क्षणों में ही उस जिज्ञासा का उत्तर देते हैं । ओह हाँ, जब आप साजिश से भरे इस भयावह प्रकरण को देखकर ऑडिटोरियम से बाहर निकलते हैं, आप महसूस करते हैं कि अभी भी वैसी ही मानसिकता कुछ नहीं बदला ।

विभाजन के दौरान सांप्रदायिक तनावपूर्ण माहौल ने घावों को हरा कर दिया है, जो ठीक करना मुश्किल है । लेकिन बैगम जान, दो समुदायों के बीच वास्तव में क्या हुआ था, उसको प्रमाणित नहीं करती । यह पूरी तरह से एक अलग कहानी है और यह फ़िल्म पूरी तरह से वेश्याओं को अपने वेश्यालय को बचाने के लिए मुट्ठीभर वेश्याओं द्वारा मुहैया कराई गई लड़ाई पर केंद्रित है ।

बेगम जान में कुछ अच्छे पल भी हैं । और उनमें से कुछ हैं : विद्या और दो नेताओं [विद्यार्थी और कपूर] के बीच का टकराव फिल्म की असली पहचान है…नसीरुद्दीन शाह के साथ विद्या की बातचीत और बाद की अन्यायपूर्ण मांग एक और आश्चर्यजनक पहलू है... गौहर खान और पिटोबेश के बीच में जो बातचीत होती है, वह आपको हिला कर रख देती है... कहानी में एक महत्वपूर्ण मोड़ पर विवेक मुशरान का पैंतरा बदल लेना, हिला देने वाला है... ये वो फ़िल्म के असाधारण पल हैं जो आपके गले में एक गांठ लेते हैं या स्क्रीनिंग समाप्त हो जाने के बाद भी आपको परेशान करते हैं ।

दूसरे पहलू पर, इसकी खामियों को नजरअंदाज करना मुश्किल है: आपको लगता है बेगम जान और राजनेताओं के टकराव के तुरंत बाद तनाव बढ़ने की संभावना है । आपकी टेंशन बढ़ने लगती है, लेकिन असल में बढ़ती नहीं है और वो सिर्फ़ सतही लगती है । आप इस फ़िल्म से खुद को जोड़ नहीं पाते हैं । बेगम जान को सब लोग छोड़कर जाने लगते हैं, और उसे पता है कि इससे उसका कारोबार जल्द ही ठप्प हो जाएगा, लेकिन वो अपनी जिद नहीं छोड़ती है और अपने कदम पीछे नहीं हटाती है । निश्चितरूप से, उसके पास वजह है, लेकिन तथ्य यह है कि वह एक चतुर और चालाक महिला है, लेकिन उसका हठी रवैया प्रभावित नहीं करता...नियमित इंटरवल पर इला अरुण का किरदार सामने आता है, जो एक किशोरी की विभिन्न कहानी दर्शाती है । सच कहूँ तो, इसका मुख्य कहानी को आगे ले जाने का कोई उद्देश्य नहीं है, न ही यह मुख्य प्लॉट के लिए प्रासंगिक है...फ़िल्म के क्लाइमेक्स में खून की होली ज्यादा दिखाई देती है, लेकिन ये देखकर दिमाग चकरा जाता है कि जो लोग उस वैश्यालय को खाली करवाना चाहते थे उनका ही ह्र्दय परिवर्तन हो जाता है । यह भाग और अधिक विश्वसनीय और प्रेरक बनाया जाना चाहिए ।

कमजोर छोर के बावजूद, बेगम जान अपने पैरों पर खड़ी होती है, तमाम कलाकारों के शानदार प्रदर्शन के सौजन्य से । निर्विवाद रूप से, विद्या बालन शोस्टॉपर हैं, लाइफलाइन हैं, और बैगम जान की आत्मा है । वह जोरदार है...वह किरदार में एकदम घुस कर अपने दमदार अभिनय का प्रदर्शन करती हैं और उनके इस पावरपैक्ड परफ़ोरमेंस को देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं है ।

बाकी के कलाकारों का, विद्या को बेहतरीन ढंग से समर्थन मिलता है, विशेष रूप से नसीरुद्दीन शाह [ध्यान खींचने वाला कैमियो], चुन्नी पांडे [अद्भुत निर्दयी कॉंट्रेक्ट किलर], गौहर खान [उपरोक्त सीक्वेंस को हाइलाइट करने के लिए हिम्मत की आवश्यकता है, यह पहली दर है], पल्लवी शारदा [ भयानक रूप में एक पूर्ण रहस्योद्घाटन है ], विवेक मुशरान [फ़िल्म के अंतिम क्षणों के दौरान इनके बुरे आदमी के रूप में सामने आने के प्रदर्शन को देखा जाना चाहिए ] और पितोबोश [उम्दा अभिनय के साथ जंचते हैं]

अनुभवी अभिनेता- आशीष विद्यार्थी, रजत कपूर और राजेश शर्मा - विश्वसनीय हैं । इला अरुण एक भावपूर्ण रोल की हकदार थी । सुमित निजावन ठीक-ठाक हैं ।

श्रीजित की सामग्री का निष्पादन उच्चतम कोटि का है, उस पर कोई दो राय नहीं । वह एक निपुण कथाकार हैं और कई नाटकीय सीक्वंस इस तथ्य को पुख्ता करते हैं । जैसा की मैं कह चुका हूं, श्रीजीत, निर्देशक कहीं अधिक हैं बजाए यहां लेखक के यानी इस फ़िल्म में श्रीजीत का बेहतरिन निर्देशन ज्यादा नजर आ रहा है और कहानी कमजोर साबित हो रही है । फ़िल्म की कहानी में गीतों को अच्छी तरह से पिरोया गया है, जिसमें 'प्रेम में तोरे' [आशा भोंसले द्वारा आवाज दी गई और अनु मलिक द्वारा लिखी गई] बहुत पसंद किया जा रहा है । सिनेमैटोग्राफी [डीओपी: गोपी भगत] फिल्म के मूड को अच्छी तरह से पकड़ती है । फ़िल्म के डायलॉग बोल्ड, अप्रिय और खट्टे हैं और बहुत से नाटकीय दृश्यों को बढ़ाते हैं ।

कुल मिलाकर, बेगम जान में जिज्ञासा बढ़ाने की क्षमता और झटका देने वाली क्षमता दोनों ही हैं । मामूली गड़बड़ी के बावजूद, बेगम जान एक दमदार कहानी के साथ शानदार फ़िल्म है और साहसपूर्ण प्रदर्शन इस फ़िल्म की जान है । फ़िल्म का कम लागात में बनना, इसके निवेशकों के लिए फ़ायदे का सौदा होना चाहिए ।