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अक्सर यह कहा जाता है कि इस देश के भीतर 2 भारत हैं । उनमें से एक शहरी भारत है, जहां आधारभूत संरचना विकसित हो चुकी है और बिजली, जल आपूर्ति, स्वच्छता इत्यादि जैसी सभी सुविधाएं आसानी से उपलब्ध है । लेकिन भारत का एक हिस्सा ऐसा भी है जो अभी भी इन बुनियादी सुविधाओं के साथ संघर्ष करता है । बिजली की कमी आज भी हमारे देश की प्रमुख समस्याओं में से एक है, छोटे शहरों में आज भी बिजली कटौती लगभग हर रोज होती है । और नतीजतन बिजली को लेकर मचते हंगामे की खबरें अब सामान्य सी हो गई है । निर्देशक श्री नारायण सिंह, जिसने पिछले साल अपनी फ़िल्म टॉयलेट-एक प्रेम कथा से दर्शकों को मनोरंजित किया था, ने इसी मुद्दे को आधार बनाया है अपनी इस हफ़्ते रिलीज होने वाली फ़िल्म बत्ती गुल मीटर चालू, में । तो क्या बत्ती गुल मीटर चालू दर्शकों को प्रभावित करने में कामयाब होगी ? या यह अपने प्रयास में विफ़ल हो जाएगी ? आइए समीक्षा करते हैं ।

फ़िल्म समीक्षा : बत्ती गुल मीटर चालू

बत्ती गुल मीटर चालू, एक आम आदमी के असंगत विद्युत आपूर्ति से संबंधित संघर्षों की कहानी है । सुशील कुमार पंत उर्फ एसके (शाहिद कपूर), ललिता नौटियाल उर्फ नौटी (श्रद्धा कपूर) और सुंदर मोहन त्रिपाठी (दिव्येंन्दु) एक दूसरे के जिगरी दोस्त हैं । ये तीन उत्तराखंड में तेहरी में रहते हैं । जहां सु्शील पेशे से एक वकील है जो लोगों को ब्लैकमेल करके त्वरित धन कमाता है और उन्हें घुमाता है, वहीं नौटी एक फ़ैशन डिजाइनर है और उसका खुद का एक बुटीक है और जिसका सपना टॉप की फ़ैशन डिजाइनर बनने का है । सुंदर एक सरल स्वभाव का आदमी है जिसने हाल ही में यूके पैकेजिंग नाम की अपनी एक फ़ैक्ट्री खोली है । सुशील और सुंदर दोनों ही नौटी को मन ही मन चाहते हैं । नौटी दोनों को एक एक करके डेट करने का फ़ैसला करती है ताकि वो ये फ़ैसला कर सके कि वह किसके साथ रिलेशनशिप में आए । सबसे पहले वह सुशील को डेट करती है और उसके साथ काफ़ी अच्छा वक्त बिताती है और उसके बाद सुंदर को डेट करती है और फ़िर नौटी को सुंदर की सादगी और ईमानदारी भा जाती है । एक दिन सुशील नौटी और सुंदर को करीब आते हुए देख लेता है और वहीं उसकी सारी उम्मीदें टूट जाती है । वह उनसे बात करना बंद कर देता है और मसूरी छोड़ कर चला जाता है । इसी बीच, सुंदर को एक झटका लगता है और बिजलि कंपनी उसकी फ़ैक्ट्री पर 54 लाख का बिजली बिल थमा देती है । सुंदर को ये बात बहुत परेशान करती है । लेकिन साथ ही वह इसका समाधान खोजने की अपनी पूरी कोशिश करता है और संबंधित अधिकारियों को समझाता है कि यह असंभव है कि उन्होंने इतनी बिजली का उपभोग किया है । बढ़े हुए बिजली बिल के कारण वह जेनरेटर का इस्तेमाल करता और ये उसका खर्चा और बढ़ा देता है । यह समझते हुए कि उन्हें बकाया राशि का भुगतान करने के लिए अपने पैतृक घर को भी बेचना पड़ सकता है, वह सुंदर को मदद के लिए अप्रोच करता है । लेकिन सुशील तो इस बात से नाराज था कि नौटी ने उसकी बजाए सुंदर को चुना । इसलिए, वह दोनों का उपहास करता है । जब सुंदर को अपनी समस्या का कोई हल नहीं मिलता है तो वह अपनी जिंदगी खत्म करने का फ़ैसला करता है । इसके बाद क्या होता है ये आगे की फ़िल्म देखने के बाद ही पता चलता है ।

सिद्धार्थ-गारिमा और विपुल रावल की कहानी सरल है जिसमें बहुत से वादे किए गए लेकिन उन्हें अच्छी तरह से पेश नहीं किया जाता है । मूल आधार में संभावित क्षमता है क्योंकि यह बहुत संबंधित है लेकिन यह ठीक से सामने नहीं आता है । सिद्धार्थ-गारिमा की पटकथा केवल कुछ जगहों पर ही बांधती है । इसमें कई सारी खामियां हैं जो साफ़-साफ़ नोटिस की जाती हैं । ये फ़िल्म एक और कोर्टरूम ड्रामा फ़िल्म की याद दिलाती है और वो है फ़िल्म जॉली एलएलबी सीरिज । इसके अलावा, फ़िल्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा शाहिद की अपनी फिल्म चुप चुप के [2006] के समान है । सिद्धार्थ-गरिमा के डायलॉग में कुछ मजेदार पंचलाइन हैं । लेकिन 'थेरा' और 'बाल' जैसे शब्दों का अत्यधिक इस्तेमाल टाला जा सकता था । वास्तव में, अगर इन दोनों शब्दों को काट दिया गया तो फिल्म की लंबाई दस मिनट तक कम हो सकती थी !

श्री नारायण सिंह का निर्देशन काफ़ी कमजोर है । इसमें खामियां थी, लेकिन दिलचस्प लेखन और कोई अन्य सक्षम निर्देशक इसके साथ योग्यतापूर्वक न्याय कर सकता था । श्री नारायण ने उतनी योग्यता नहीं दिखलाई । इसमें कोई संदेह नहीं है कि उन्होंने फ़िल्म के कुछ पलों को चतुराई से हैंडल किया है जो दर्शकों को जागरूक करता है कि ये सवालिया समस्या कितनी गंभीर है । लेकिन उनका निष्पादन कई आवश्यक चीजें अधूरी छोड़ देता है ।

बत्ती गुल मीटर चालू करीब 161 मिनट लंबी है और इसका फ़र्स्ट हाफ़ आसानी से तकरीबन 30 मिनट तक छोटा किया जा सकता था । तीनों की दोस्ती को दर्शाते हुए शुरुआती सीक्वंस सख्ती से ठीक हैं । चीजें तब जोर पकड़ती हैं जब नौटी पहले सुशील कुमार और फ़िर सुंदर को डेट करने का फ़ैसला करती है । वो सीन, जहां सुशील, नौटी और सुंदर को किस करते हुए देख लेता है, काफ़ी नाटकीय लगता है । मसूरी वाला पूरा सीन हंसी लेकर आता है साथ ही ये एक बड़े टकराव को भी लेकर आता है । फ़िल्म का इंटरमिशन प्वाइंट काफ़ी नाटकीय होता है । इंटरवल के बाद, सुशील कुमार का वो सीन जिसमें वह लोकपाल कार्यालय में एसपीटीएल वकील को धमकी देता, सीटी बजाने योग्य है । लेकिन असली मजा कोर्टरूम सीक्वंस के साथ शुरू होता है । जिस तरह से सुशील कुमार, वकील गुलनार (यामी गौतम) की सॉफ्ट-पोर्न बुक पकड़ता है और जोर से पढ़ता है, ये सीन हंसा-हंसा कर पेट फ़ाड़ देता है । सुशील द्वारा बताए गए कुछ तथ्यों भी चौंकाने वाले है । फ़िल्म का क्लाइमेक्स आदर्श रूप से धमाकेदार होना चाहिए था, लेकिन अफ़सोस ये फ़िल्म का वि बिंदु था जहां फ़िल्म एकदम गिर जाती है । इसके अलावा, कहानी में खलनायक उतना शक्तिशाली नहीं हैं । सुशील बड़ी-बड़ी बिजली कंपनी से लड़ता है और इसमें उसका साथ जनता देती है । फिर भी, किसी भी समय उन बिजली कंपनी ने उसे या उसके परिवार के सदस्यों को धमकी नहीं दी न ही शारीरिक रूप से प्रताडित किया । चीजें काफ़ी शांतीपूर्वक चलती रहीं और देखना एकदम समझ के परे लगता है ।

शाहिद कपूर उन प्रमुख कारणों में से एक है, जिसके कारण फिल्म कुछ हद तक सफ़ल हुई । वह काफ़ी बेहतर लगते हैं और उनकी कॉमिक टाइमिंग को बहुत पसंद किया जाएगा । सेकेंड हाफ़ में, वह छा जाते हैं । इमोशनल सीक्वंस में वह काफ़ी शानदार परफ़ोरमेंस देते हैं । शुरूआती सीक्वंस में श्रद्धा कपूर काफ़ी बेहतर लगती हैं और सेकेंड हाफ़ में केवल सीरियस सीक्वंस में ही वह प्रभावित करती हैं । दिव्येंदु काफ़ी ईमानदारी से परफ़ोर्म करते हैं और हमेशा की तरह एक सक्षम प्रदर्शन देते हैं । यामी गौतम की काफ़ी देर से एंट्री होती है और वे शानदार परफ़ोरमेंस देती है । हालांकि, वो सीन जिसमें कोर्टरूम में उनके साथ छेड़छाड़ की जाती है, शायद महिला दर्शकों द्दारा पसंद नहीं किया जाए । अतुल श्रीवास्तव (मुरारीलाल त्रिपाठी; सुंदर के पिता) के कुछ महत्वपूर्ण दृश्य हैं और वह काफ़ी अच्छे हैं । मुकेश एस भट्ट (उपरेती) को काफ़ी ज्यादा स्क्रीन टाइम मिलता है लेकिन वे कुछ ज्यादा योगदान नहीं देते । सुष्मिता मुखर्जी (न्यायाधीश) जॉली एलएलबी के सौरभ शुक्ला जैसा करने की कोशिश करती है लेकिन यह सब जबरदस्ती का लगता है । सुधीर पांडे (डी एन पंत) सख्ती से ठीक है और ट्रेलर में दिखाए गए उनके कुछ दृश्यों को फ़ाइनल फ़िल्म में कात दिया जाता है । दूसरी पत्नी को खोजने की कोशिश करने का उनका पूरा ट्रैक कहानी में कुछ फ़िट नहीं बैठता है । फरीदा जलाल (दादी) और सुप्रिया पिलगांवकर (बीना नौटियाल) बर्बाद हो जाती हैं । समीर सोनी (संजय बदरुया) थके हुए लगते हैं और ऐसा लगता है जैसे उनकी आवाज डब की गई हो । राजेंद्र चावला (जनक खंडूरी; शिकायत कार्यालय के अधिकारी) और सुखविंदर चहल (पंकय बहुगाना; एसपीटीएल अधिकारी जो स्टिंग ऑपरेशन में पकड़े जाते हैं) काफी अच्छे हैं । बीजेंद्र कला (दीनदयाल गंगोत्री ट्रेवल्स मालिक) हमेशा के रूप में अच्छे हैं । विकास (शरीब हाश्मी) पहचान में नहीं आते हैं जबकि बद्रूल इस्लाम (कल्याण) अच्छे है । लेकिन उनका ट्रैक ऐसा है कि दर्शकों को इसके महत्व को समझना उनकी समझ से परे लग सकता है । अनुष्का रंजन (रीता) को करने के लिए कुछ ज्यादा नहीं है ।

फ़िल्म के गानों की बात करें तो, 'गोल्ड तांबा' आकर्षक है और 'हर हर गंगे' काफ़ी महत्वपूर्ण मोड़ पर आता है । 'हार्ड हार्ड' और 'देखते देखते' जबरदस्ती के डाले हुए लगते है । विजय वर्मा, अनामिका और लिटन का पृष्ठभूमि स्कोर हल्के दिल के दृश्यों में निराशाजनक है लेकिन सेकेंड हाफ़ में बेहतर हो जाता है । अंशुमन महाले का छायांकन उपयुक्त है लेकिन निर्माताओं को शहर के बहुत लंबे शॉट लेने से बचा जाना चाहिए था । उदय प्रकाश सिंह का प्रोडक्शन डिजाइन यथार्थवादी है । दर्शन जालान और नीलंचल कुमार घोष के परिधान किरदारों की आवश्यकताओं के अनुसार हैं । पोस्ट हाउस का वीएफएक्स विशेष रूप से दिन में शूट किए गए दृश्यों में बहुत बुरा है लेकिन रात के दृश्यों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है । श्री नारायण सिंह का संपादन बेहतर और क्रिस्पी हो सकता था ।

कुल मिलाकर, बत्ती गुल मीटर चालू एक औसत और एक बार देखने लायक मनोरंजक फ़िल्म है, जो एक निश्चित हिस्से के दर्शकों को आकर्षित करती है । फ़िल्म में बहुत सारी कमियां और अधूरे अंश हैं लेकिन शाहिद कपूर की मनोरंजक परफ़ोरमेंस फ़िल्म को काफ़ी हद तक बचा लेती है । बॉक्सऑफ़िस पर इस फ़िल्म को मजबूती से लोगों की तारीफ़ की आवश्यकता होगी, जो फ़िल्म के लिए दर्शक जुटाने का काम करेगी ।