शेयर बाजार भारत के वित्तीय केंद्र, मुंबई का सबसे महत्वपूर्ण एकत्रीकरण है । शेयर बाजार के गिरने और चढ़ने की खबर लगातार लोगों को लुभाती है । लेकिन फ़िर भी इस विषय पर बमुश्किल फ़िल्में बनाई गई । बीते दशक में, समीर हंचांते की गफ़ला [2006] फ़िल्म आई लेकिन यह बिना कोई छाप छोड़े सिनेमाघरों से उतर गई, फ़िल्म का विषय 1992 के शेयर बाजार घोटाले से प्रेरित था, जो कि एक अच्छा प्रयास था । और अब इस हफ़्ते सिनेमाघरों में निखिल आडवाणी और नवोदित निर्देशक गौरव के चावला लेकर आए हैं शेयर बाजार की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म, बाज़ार । यह संभवत; बॉलिवुड की सबसे बड़ी शेयर बाजार वाली फ़िल्म है । तो क्या बाज़ार दर्शकों का मनोरंजन करने में कामयाब हो पाएगी, या यह एक नाकाम प्रयास साबित होगी, आइए समीक्षा करते है ।
बाज़ार की कहानी भूख, लालच और शक्ति की कहानी है । रिजवान अहमद (रोहन मेहरा) इलाहाबाद में एक छोटा सा स्टॉक ब्रोकर है । वह अपनी कम कमाई से खुश नहीं हैं और इसलिए, मुंबई आता हैं । उसका अंतिम लक्ष्य बिजनिस टाइकून शकुन कोठारी (सैफ अली खान) के साथ काम करना है । पहले उसे किशोर वाधवा (डेनिल स्मिथ) के साथ काम करने का मौका मिलता है । यहां, वह प्रिया राय (राधिका आप्टे) से दोस्ती करता हैं और बाद में दोनों रिलेशनशिप में आ जाते हैं । एक बार, दोनों को एक हाइ प्रोफ़ाइल ईवेंट में जाने का मौका मिलता है जहां उसकी मुलाकात शकुन कोठारी से होती है । रिजवान श्कुन को आगामी बाजार विकास की सही भविष्यवाणी करके प्रभावित करता है, जिसे कोई भी भविष्य में नहीं देख पाता है । प्रभावित होकर शकुन रिजवान के साथ अपना ट्रेडिंग अकाउंट खोलता है और धीरे-धीरे दोनों एक दूसरे के बहुत करीब आ जाते है । दूसरी तरफ, सेबी का एक अधिकारी राणा दासगुप्त (मनीष चौधरी) शकुन कोठारी के गलत तरीके से अवगत हैं लेकिन उसके पास पर्याप्त सबूत नहीं हैं । यह समझते हुए कि शकुन और रिजवान करीबी दोस्त बन गए हैं, राणा अब रिजवान की बारीकी से निगरानी करना शुरू कर देता है । इसके बाद क्या होता है यह आगे की फ़िल्म देखने के बाद पता चलता है ।
परवेज शेख की कहानी काफी रोचक और आशाजनक है । हॉलीवुड फ़िल्म वॉल स्ट्रीट (1987) से इसकी कोई समानता नहीं है । परवेज शेख और असीम अरोड़ा की पटकथा प्रभावी है और फ़र्स्ट हाफ़ में बांधे रखती है । हालांकि इंटरवल के बाद के हिस्सों में, फ़िल्म का चार्म खोने लगता है और यह बोझिल सी लगने लगती है । असीम अरोड़ा के डायलॉग तेज और प्रभावशाली हैं ।
गौरव के चावला का निर्देशन पहली बार के रूप में काफ़ी अच्छा है । कुछ दृश्यों को, विशेष रूप से फ़र्स्ट हाफ़ में असाधारण रूप से दर्शाया जाता है । लेकिन सेकेंड हाफ़ में सब कुछ गड़बड़ हो जाता है । स्क्रिप्ट में कई सारी कमियां थी और वह इसे अच्छी तरह कवर नहीं कर सके । इसके अलावा, फिल्म में बहुत से तकनीकी शब्दों का उपयोग किया जाता है जो एक आम आदमी के समझ में नहीं आता है । इसलिए उनके लिए फ़िल्म की कार्यवाही को समझना मुश्किल होगा । यह फिल्म की अपील को काफी हद तक प्रतिबंधित करता है ।
बाज़ार की शुरूआत काफ़ी दिलचस्प तरीके से होती है । रिज़वान का परिचय सीन काफ़ी दिलचस्प है । शकुन कोठारी का एंट्री सीन काफ़ी दमदार है जो सीटियों और तालियों का हकदार बनेगा । और ठीक यहीं से फ़िल्म कहीं भी नहीं रुकती है । वो सभी सीन जैसे- नीलामी के सीन, वाधवा के ऑफ़िस में रिज़वान की इंटरव्यू प्रोसेस, रिज़वान का पहला बड़ा फ़ायदा, संदीप तलवार (विक्रम कपाडिया) के साथ शकुन का टकराव,शकुन का अपनी पत्नी मंदीरा (चित्रांगदा सिंह) और उसके बाद बच्चों के साथ डिनर टेबल पर बातचीत करना, इंटरमिशन मोड़ पर शकुन-रिजवान की पहली मीटिंग, ये सभी सीन एक अमिट छाप छोड़ते है । इनमें से कुछ समझ में आते हैं लेकिन कुछ नहीं लेकिन फ़िर भी ये मनोरंजक है । लेकिन सेकेंड हाफ़ में फ़िल्म गिरने और खिंचने लगती है । केवल आमना (सोनिया बलानी) का सगाई दृश्य आकर्षक लगता है । इसके अलावा सेकेंड हाफ़ में फ़िल्म अपना वांछित प्रभाव नहीं छोड़ पाती है । यहां कुछ टर्न एंड ट्विस्ट आते हैं लेकिन फ़र्स्ट हाफ़ की तरह प्रभाव नहीं बना पाते और परेशान करना शुरू कर देते हैं । इसके अलावा फ़ाइनल सीन भी तर्कसंगत नहीं लगता है ।
सैफ़ अली खान बेहद शानदार परफ़ोर्मेंस देते है और इसे उनके बेहतरीन काम के रूप में देखा जाएगा । फ़र्स्ट सीन से लेकर, वह अपने किरदार में एकदम समाए हुए लगते है । वह स्थिति के आधार पर चालाक और मजाकिया लगते हैं, साथ ही जब वह गुजराती डायलॉग बोलते हैं तो कमाल के लगते है । रोहन मेहरा एक आत्मविश्वासपूर्ण शुरुआत करते हैं और काफी आशाजनक लगते हैं । उन्हें अपनी पहली ही फिल्म में निभाने के लिए काफ़ी शानदार रोल मिलता है जिसका वह एकदम सही इस्तेमाल करते है । राधिका आप्टे काफ़ी आकर्षक और खूबसूरत लगती हैं और उम्मीद के मुताबिक, बेहतरीन परफ़ोरमेंस देती है । चित्रांगदा सिंह अच्छी परफ़ोरमेंस देती हैं लेकिन उनकी स्क्रीन पर बहुत कम मौजूदगी है । मनीष चौधरी फ़र्स्ट हाफ़ में बमुश्किल ही नजर आते है । लेकिन वह प्रभावपूर्ण है । डेनिल स्मिथ, जिन्होंने हाल ही में हैप्पी फ़िर भाग जाएगी में हर किसी को प्रभावित किया, एक छोटी सी भूमिका में जंचते हैं । सोनिया बलानी प्यारी लगती है । पवन चोपड़ा (जुल्फिकार अहमद) और अभिषेक गुप्ता (अनवर) अपने रोल में जंचते है । विक्रम कपाडिया एक अमिट छाप छोड़ते हैं । उत्कर्ष मजूमदार (छेदा), डेनिश हुसैन (दुबे) और साहिल संघ (विनीत मेहरा) ठीक हैं । 'अरबपति' गीत में एली अवराम काफ़ी हॉट लगती है ।
फ़िल्म का संगीत यादगार नहीं है । सिर्फ़ एक ही गाना अच्छा लगता है वो है, 'केम छो' । इसके बाद 'ला ला ला' भी अच्छा है । 'अधूरा लफ़्ज़' और 'छोड़ दिया' भूलाने योग्य है जबकि 'बिलेनियर' कोई प्रभाव नहीं छोड़ता है । जॉन स्टीवर्ट एडुरी का बैकग्राउंड स्कोर बहुत ही शानदार है और कई दृश्यों के प्रभाव को बढ़ाता है । स्वप्निल एस सोनवणे का छायांकन महान है और कैमरामैन मुंबई के हाई राइज और चमक-धमक को अच्छी तरह से कैप्चर करते है । शूर्ती गुप्ते का प्रोडक्शन डिजाइन समृद्ध है । नताशा चरक और निकिता मोहंती के परिधान बहुत ही आकर्षक हैं, खासकर सैफ अली खान और राधिका आप्टे द्वारा पहने गए परिधान । माहिर ज़वेरी और अर्जुन श्रीवास्तव का संपादन बहुत स्लिक और स्टाइलिश है लेकिन सेकेंड हाफ़ में कुछ जगहों पर, यह थोड़ा असंगत लगता है ।
कुल मिलाकर, बाज़ार का फ़र्स्ट हाफ़ बहुत ही शानदार है लेकिन सेकेंड हाफ़ समझ के परे लगता है और यह फ़िल्म पर बुरी तरह से असर डालता है । इसके अलावा, फ़िल्म का विषय ऐसा है कि शहरी क्षेत्रों में केवल मल्टीप्लेक्स दर्शकों को ही यह आकर्षित करेगा ।